Shrimad bhagwat geeta shlok 4-6 - Online Paisa

Friday, September 27, 2019

Shrimad bhagwat geeta shlok 4-6

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रपदश्च महारथः।। 4 ।।


धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नर पुङ्गवः ॥ 5 ॥


युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमोजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।॥ 6 ॥


अर्थ-


यहां इस सेना में प्रचण्ड शूरवीर, विख्यात धनुर्धर अर्जुन , भीम आदि के समान अति प्रसिद्ध योद्धा हैं। उनके नाम वर्णन करता हूँ। युयुधन, विराट, महारथि द्रुपद, धृष्टकेतु, चेकितान वीर्यवान, पराक्रमी काशीराज, पुरूजित, कुन्तिभोज, नरश्रेष्ठ शैब्य, विक्रान्त युधामन्यु, पराक्रमी उत्तमौजा सुभद्रा पुत्र (अभिमन्यु) द्रौपदी के पुत्र (पांचों भाई पाण्डवों से पांच पुत्र) प्रचण्ड महारथी है।। 4-6 ॥

व्याख्या-


दुर्योधन जिनके नाम चार से छः श्लोकों के मध्य दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को सम्बोधित का भयजनित व्यंग्य आधार हीन नहीं हैं। ये बीस योद्धा कर एक-एक करके गिने हैं महान् योद्धा है। अतः दुयेधन अपने समय के इन महान् योद्धाओं से आतंकित से लगे। इन योद्धाओं का बल, वीरता, पराक्रम युद्ध कौशल तथा शूरवीरता सर्व जगत् विख्यात हैं अगर नकुल और सहदेव के नाम पंक्ति में नहीं गिने तो यह भूल के कारण नहीं अपितु दुर्योधन को इन बीस गिने गये योधाओं के शौर्य और वीरता के भय के कारण है। 

स्वभाविक ही है कि दुर्योधन इसलिये भी सटपटा रहे हैं कि जिनको वनवास और अज्ञात वास भिखारी बनने के लिये भेजा था आज उन्होंने ऐसी विशाल सेना संगठित कर ली और ऐसे वीर योद्धा उनके संचालन में दत्तचित् है जो किसी के लिये भी नाश और भय का कारण हो सकते हैं। मन से भय दुर्योधन ने युधिष्ठर, को भगाने के लिये दुर्योधन 10 तक) में अपने दल के महारथी और सुप्रसिद्ध योधाओं का और अपनी विशाल सेना का वर्णन करते हैं । पहले अध्याय के 10 श्लोकों में आध्यात्मिक पहलू की झलक भी स्पष्ट है। 

हमारे शरीर रूपी धर्म क्षेत्र तथा युद्ध क्षेत्र में जो प्रवृत्ति -निवृत्ति (कौरव- अब गुरु द्रोणाचार्य को अगले चार श्लोकों (7 से पाण्डव) दल लड़ रहे हैं उनका भावार्थ इस प्रकार हैं, पांच पाण्डव पांच तत्त्वों या पञ्च देवों के प्रतीक हैं क्योंकि ये तप और शान्तिमय व्यवहारिक पुरुषार्थ के अनुयायी हैं। इस शरीर में दस इन्द्रियां है जो मन पर आधारित होने के कारण निरंतर चंचल मन की तरह चंचल हैं कभी स्थिर नहीं जो कुछ भी दिखाई दे, सुनाई दे, सूंघने को मिले, छूने, चखने को मिले उधर ही आकृष्ट होती हैं। 

अनेक विषयों के इधर-उधर होने से इन्द्रियां भी उनका अनुसरण करती हैं। ये ही पांच ज्ञानेन्द्रिय (चक्षु, जिह्वा, नासिका, त्वचा, स्रोत्र) पांच कमेन्द्रिय (हाथ, पांव, जिह्वा, मल-मूत्र द्वार) ये दस इन्द्रियां दसों दिशाओं (पूर्व, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ईशान, अन्तरिक्ष तथा धरती) में परिभ्रमण करती है। अतः 100 अर्थात्, दस गुणा दस सौ होता है। 

अतः कौरवों की 10 x 10 लोभ, लालच, वासनात्मक प्रवृतियों के कारण इनकी संख्या की तुलना उक्त, दिशाओं एवं इन्द्रियो के गुणन खण्ड के समान की गई हैं जब तक श्रीकृष्ण रूपी आत्मा की आवाज हम नहीं सुनेंगे और उसपर अमल नहीं करेंगें तो सौ कौरवों रूपी चंचल मन पर आधारित इन्द्रियों के चंगुल से मोक्ष न पा सकंगे।

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