Shrimad bhagwat geeta shlok 2,3 - Online Paisa

Wednesday, September 25, 2019

Shrimad bhagwat geeta shlok 2,3

दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढहं दुर्योधनस्तदा।।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रव्रीत् ।। 2 ।।


अर्थ-

सञ्जय बोले व्यूहरचना रूप में (दृढ़ संकल्पित) पाण्डवों की सेना को देखकर राजा दुर्योधन (अपने) आचार्य ट्रोण के समीप जाकर ऐसे वचन बोले।। 2 ॥

व्याख्या-

युद्ध के लिये दोनों सेंनाएं दृढ़ संकल्प, व्यूह रचनाओं में खड़ी हैं। दुर्योधन ही पहले पुरुष है जो तुरन्त हरकत में आते हैं। मोह ग्रस्त व्यक्ति जब अनहोनी को घटित हुए देखता है तो भय जनित कोतूहल उसको डंस देता है। ठीक यही स्थिति राजा दुर्योधन की इस युद्ध क्षेत्र में है।

13 वर्षो के वनवास और अज्ञात वास के पश्चात दुर्योधन को यह आशा नहीं थी कि केवल मात्र पाण्डव ऐसी विशाल दक्ष योधाओं की सेना भयानक वीरों के संचालन में जोड लेंगे। यह विकृत दोनों (कौरव और पाण्डवों) के गुरु हैं। अत: उचित होता कि वह (दोनों दलों के सम्बन्धी होने कारण) बलराम के समान तटस्थ रहते परन्तु उन्होंने कीरवों का भय ही उनको द्रोणाचार्य की ओर अग्रसर करता है।

ट्रोणाचार्य पक्ष चुना, जाहिर है कि राज दरबारी दबाव और परम्पराओं के कारण उन्होंने ऐसा कर दिया। यह भी अस्वीकारा नहीं जा सकता कि युद्ध क्षत्रिय के लिये स्वर्ग द्वारा होने के कारण उन्होंने इस अवसर को न खोने का निर्णय लिया और राज्य सेवा में होने के कारण कौरव सेना का संचालन स्वीकारा।

दूसरी और यदि हम ध्यान से देखें तो यह स्पष्ट होगा कि इस शारीरिक कुरुक्षेत्र के जीवन रूपी संग्राम में हर व्यक्ति लगभग दुर्योधन की भान्ति ही व्यवहार करता है। घबराहट में अपनंी बुद्धि (गुरु) को टटोलता है, मोह-लाभ का फल खोजता और पूछता रहता है।। 2 ।॥


पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम।
व्यूढा द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।॥ 3 ॥


अर्थ-

हे आचार्य! पाण्डवों की विशाल सेना को देखिए जिसकी संरचना आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न ने की है।। 3 ।॥।

व्याख्या-

यह एक व्यंग्य ही नहीं अपितु आक्षेप का तीर है जो दुर्योधन ट्रोणाचार्य पर द्रोपदी के जन्म का विषय भी अपने आप में एक दैवी घटना है। राजा द्वपद और द्रोण बचपन के मित्र थे। बाद में द्रपद जब पांचाल नरेश बने और ट्राण छोड़ रहे हैं।

महाराज द्वुपद का पुत्र धृष्टद्युमन और उसकी बहन ने उनसे बड़ी आशा से एक कार्य सिद्धि के लिये सम्पर्क साधा तो द्वुपद ने आचार्य द्रोण की मांग को ठुकरा दिया, परिणाम स्वरूप रुष्ट और क्रेधित द्रोणाचार्य ने इसको अपमान के रूप में लिया और पाण्डवें की सहायता लेकर बुरी (मोह) नहीं था, अत: द्वपद से जीता हुआ राज्य उन्हें लौटा दिया। द्रुपद पर आक्रमण कर तरह हराया।

क्योंकि द्रोणाचार्य को राज्य से लगाव इस घटना से द्वुपद अति अपमानित हुए तथा तत्पश्चात घोर तप में लीन हो गये। इस तप पूजा-अर्चना के उपरान्त यज्ञ किया गया, यज्ञ के हवन कुण्ड से द्रोपदी और धृष्टद्युमन का उदय (जन्म) हुआ। धृष्टद्युमन को  आचार्य द्वाण की मृत्यु के कारण का ज्ञान था ।

यहा द्रुपद पुत्र धृष्टद्युमन विशाल पाण्डव सेना के सेनापति हैं इन द्रुपद पुत्र को भी आचार्य केण ने ही युद्ध विद्या सिखाई हैं। इसी सन्दर्भ की पृष्ठ भूमि में ही तो गाजा दर्योधन गुरु द्वाणाचार्य को सम्बोधित करके व्यंग्य कस रहे हैं मानो कह रहे हैं। ১৪ कि अपने किये का फल देख लो।

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