Shrimad bhagwat geeta shlok 1 - Online Paisa

Tuesday, September 24, 2019

Shrimad bhagwat geeta shlok 1

अथ प्रथमाऽध्याय विषादयोगः 


धृतराष्ट्र उवाच अर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समेवेता युयुत्सवः।
 मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय! ॥ 1 ।। 

अर्थ

धृतराष्ट्र बोले हे सज्जय! धर्मछेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध करने के लिये एकत्रित मेरे और पाण्ड पुत्रों ने क्या किया? ।॥ 1 ॥

व्याख्या-

जन्मान्ध महाराज धृतराष्ट्र दिव्य चक्षुधारी सञ्जय से यह प्रश्न युद्ध के आरम्भ होने से पहले पूछ रहे हैं कि घर्मक्षेत्र कुरुकषेत्र में क्या हुआ? कुर्क्षेत्र तो धर्म्षेत्न नहीं वह तो युद्धक्षेत्र था, तो प्रश्न यह उठता है कि धृतराष्ट्र ने कुरुक्षेत्र (जो युद्ध क्षेत्र है) के साथ "धर्म'" शब्द क्यों जोड़ दिया? अतः इसमें राजा धृतराष्ट्र के संशय तथा भयग्रस्त मन का संकेत हैं। क्योंकि वह शास्त्र के इस उल्लेख को जानते थे कि सत्य की ही विजय होती है।

परन्तु वह निःसंदेह यह भी जानते थे कि इस युद्ध का कारण सत्य तथा धर्म नहीं परन्तु कीरवों (जिशेष कर दुर्योधन) के पाण्डवों के प्रति धर्म विरोधी धारणा थी जिसकी एक लम्बी शृंखला थो और जिनका कारण दुर्योधन तथा कौरवों दल महारथियों का लोभ स्वार्थ, अन्याय अहंकार तथा निराधार प्रतिशोध भाव थे जिनको दुयोधन को स्वपं को इस बोषणा ने सिद्ध कर दिया था कि वह विना युद्ध किये पागडवो को सई की नोक के बराबर भूमि भौ नहीं देंगे टुर्योधन ने सन्धि के सारे प्रस्ताव और प्रयास भी ठुकरा दिये थे,

स्वयं श्रीकृष्ण द्वारा सन्धि के अनेक प्रयत्न तथा प्रयास भी दुर्योधन की युद्ध हठ के सामने पूरी तरह असफल रहे थे, वास्तव में दु्योधन ही नहीं बल्कि मारना था। महाराजा युधिष्टर इस पृष्ठभूमि के समक्ष अपने दल को धर्म के तराजू में हल्का पड़ने के कारण अपनी अन्तर आत्मा में व्यकित थे। का युद्ध षड्यन्त्र का मन्तव्य पाण्डवो को युद्ध में हराना वैसे भी युद्ध तो होता ही भयावह है।

अब मानो अपने आपको सांत्वना देने के लिये तथा इतिहास और भविष्य के सन्मुख तथ्यों पर पर्दा डालने के लिये युद्ध क्षेत्र कुरुक्षेत्र को धर्म क्षेत्र की पावन संज्ञा से अलंकृत प्रजा और इतिहास महाभारत युद्ध का कारण कौरवों के दुष्ट भावों में न देख पाये अपितु महाराज धृतराष्ट्र द्वारा इस को धर्मरक्षा का उत्तम प्रयास माने। परन्तु यह एक पंगु प्रयास ही नहीं अपितु धर्म का कर रहे हैं ताकि मुखीटा ही सिद्ध हुआ। का इतिहास ऐसा ही वास्तव में महाभारत युद्ध ही क्या बहुत सारे युद्धां होता है।

अधिकांश युद्ध का कारण मोह, अज्ञान और प्ाप ही होते हैं। युद्ध आज का हो अववा पूराना इसका कारण मानव अहंकार, लालच, मोह तथा प्रतिशोध ही होता है। सताधारी, भय, संशय तथा मोह के कारण अपने विरोधियों को नष्ट करने पर तुल जाते हैं। लोगों को गुमराह करने के लिये आडंबर खड़े किये जाते हैं और तथ्य बदले जाते हैं। अपनी सफाई में नैतिकता और बलिदान का पाखण्ड खड़ा किया जाता है। सत्ता के मोह को मजबूरी, लालच को देश सेवा, द्वेष व प्रतिशोध को घर्म पालन और अन्याय को कुर्बानी दिखाते हैं।

यह युद्धों के सरदार दुर्योधन हो, सिकन्दर अथवा हिटलर सब असुर तथा नाशक प्रवृत्ति के ही धुरन्धर होते हैं। आज इराक का युद्ध तो हमारे सामने का प्रमाण है सशक्त अमेरिका ने बेंकसूर इराक को मात्र स्वार्थ और लालच के कारण झूठ के सहारे तथ्या को मराड़ कर उस पर आक्रमण कर डाला- यही अक्सर युद्धों का इतिहास है। वास्तव में महाभारत युद्ध को धर्मयुद्ध का स्वरूप देने का औवित्य तथा श्रेय तो पाण्डवों तथा श्रीकृष्ण भगवान् को जाता है।

पाण्डवों के वस्टिदान और श्रीकृ्ण भगवान् के निष्काम कर्म की शक्ति नें यह युद्ध लाचारी में धर्म की रक्षा के लिये सत्य के आधार पर लड़ा तथा वर्म को जीवित रखने के लिये जीता धर्म की रक्षा इसलिये जरूरी है क्योंकि धर्म ही संसार का आधार है। धर्म की हानि होने पर संसार चल नहीं सकता इसके आधार कर्तव्यपरायणता, निष्पक्षता तथा समदर्शिता है- अर्थात् मनुष्य दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जो वह अपने साथ नहीं करता। इसके अतिरिक्त संसार में श्रेष्ठजनों तथा सत्ताधारियों का धर्म के प्रति विशेष दायित्व है।

शास्त्रों के अनुसार धर्म चतुष्पाद माना गया है; दया, तप, शीच तथा सत्य जो श्रेष्ठजन इनमें से एक को भी अपने जीवन का दृढ आधार नहीं बना पाता उसका इस लोक तथा परलोक दोनों में ही पतन होता है। क्योंकि कर्म फल तो भोगना ही पड़ेगा, धृतराष्ट्र ने भी भोगा था। कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र की संज्ञा देने से पाप का पलड़ा हल्का नहीं हुआ था।

वास्तव में ब्रह्मवेता वेद व्यास ने कुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहने का आधार धृतराष्ट्र की कथनी में नहीं अपितु पाण्डवों और श्रीकृष्ण की करनी में पाया था, जिन्होंने निरन्तर और सर्वदा धर्म का पालन किया और धर्म की रक्षा के लिये कुरुक्षेत्र में युद्ध करने से भी नहीं चौके धर्म की रक्षा और इसका पोषण केवल मात्र विशिष्ट ववनों से नहीं हो सकता और न ही पाखण्ड, निबलता और दुष्कर्म इसकी गरिमा को मिटा सकते हैं इसकी रक्षा और विकास के लिये निष्काम कर्म और बलिदान अनिवार्य है जो पाण्डवों ने कर दिखाया था ।

महाभारत इसी का साक्षी है और गीता इसका मन्त्र। गीता ज्ञान एक गहन रहस्य है। इसके अध्ययन से यह स्पष्ट है कि अर्जुन पहुंचाने एक ऐतिहासिक महाभारत योद्धा के अतिरिक्त ब्रह्म ज्ञान को संसार तक का माध्यम भी है। समस्त गीता में परोक्ष रूप से और अनेक श्लोकों में प्रत्यक्ष में वर्णित है कि वास्तविक कुरुक्षेत्र जो उचित रूप में धर्म क्षेत्र है वह यही मनुष्य शरीर है "इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यमिधीयते" (गीता 13-1) अर्जुन को सम्बोधित करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो मनुष्य क्षेत्र (अपने शरीर) और इसमें अदृश्य आत्मा को उचित प्रकार से जानता है वहीं सच्चा ज्ञानी या योद्धा है।

श्रीकृष्ण भगवान् गीता में बार बार कहते हैं कि आत्मा सर्वव्यापक है अर्थात् यह सब जीवों में है। यह आत्मा परम प्रभु परमब्रह्म का अमर अंश होने के कारण (गीता 15.7) समस्त जीवों में है और इसके बिना विश्व एवं समस्त प्राणी जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा पोषण सम्थव नहीं है यह आत्मा तत्व प्रलय में भी जीवों के कारण रूप में व्याप्त रहता है|। आश्चर्यजनक स्थिति वह है कि मनुष्य इस सर्वय्यापक आत्मा से अनभिज्न हैं अर्थात् मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप की नहीं जानता।

क्योकि मीता कहती है कि मनुष्य शरीर नहीं आत्मा है। दूसरा पहलू यह भी है कि आत्मा का ज्ञान या ब्रह्म ज्ञान पाना अंतरिक्ष में पैदल सफर करने से भी बड़ी चुनौती हैं। इस चुनौती के कारण ही तो भगवान् कहते हैं कि वही सच्चा ज्ञानी है जो इस क्षेत्र (शरीर) और (आत्मा) श्षेत्रज्ञ का ज्ञान रखता है। यह जो हमारा देह रूपी कुरकषेत्र (कर्मक्षेत्र) है यही वास्तव में वर्म क्षेत्र हैं।

इस युद्ध येत्र में दो युद्धाभिलाषी शत्रुदल लड़ते रहते हैं। ये सुर (प्रवृति) और आमुरी वृत्ति टल कहलाते हैं आसुरी दल का लक्ष्य और कार्य प्रणाली - मैं, मेरा, हम, हमारा अर्थात् केवल मात्र अपने पन का पुरुषार्थ हैं इसका प्रयास स्वार्थ की परिक्षि को पार नहीं करता। अत: यह असुर प्रवृत्ति मनुष्य को नाश की ओर ले जाती है सुर दल का ध्येय और कर्तव्य, सेवा, सहायता और बलिदान, है जो ौ की ओर ले जाता है। इन दोनों वृत्तियों का वर्णन भगवान् ने सोलहवें अध्याय में विस्तार पूर्वक किया है।

No comments:

Post a Comment